बापू की यादों वाला घर चरखा, पलंग, ब्लेड आज भी है सुरक्षित
बैतूल। बापू की यादें जिंदा रहे, इसलिए बैतूल के एक परिवार की तीसरी पीढ़ी ने अपने बंगले का हुलिया तक नहीं बदला। 88 साल पहले जिस तरह से था, वह आज भी वैसा ही है। इस घर में महात्मा गांधी 1933 में आए थे। वे यहां तीन दिन रुके थे। घर में रखा बापू का चरखा, पलंग और सेविंग ब्लेड आज वैसा ही है।
यह बंगला 5 हजार स्क्वॉयर फीट में बना है। वही पुराने टीन की पट्टियों के बने कंगूरे, सागौन की लकड़ी की रेलिंग और अंदर लकड़ी की ही सीलिंग। आज भी वैसी ही है। करीब 1890 में यह मकान बनवाने वाले लखमीचंद गोठी के परपौत्र रमन गोठी (53) बताते है कि उनके दादा पनराज गोठी के हिस्से में यह मकान आया था, जो बाद में पिता स्व. मोतीलाल गोठी के बाद से यह उनकी देखरेख में है।
हरिजन उद्धार कार्यक्रम के तहत बैतूल आए बापू सेठ जी के बगीचे के नाम से प्रसिद्ध इस बंगले में अपने कार्यकर्ताओं के साथ तीन दिन तक ठहरे थे। यहीं रुककर उन्होंने आम के बगीचे में सभाएं की थीं। गोठी परिवार को बंगले में गांधी का रुकना इतना भाया की उन्होंने इसमें कोई बदलाव न करने का फैसला किया। रमन कहते हैं कि यह फैसला इसलिए लिया गया कि बदलाव करने से गांधीजी की स्मृतियां ओझल न हो जाए। यही वजह है कि 88 साल बाद भी गोठी का यह मकान वैसा का वैसा ही है जैसा 1933 में था। सिर्फ दीवारों की पुताई कराते हैं।
चरखा और ब्लेड आज भी आकर्षण
महात्मा गांधी का वो चरखा आज भी परिवार के पास सुरक्षित है। जिसे महात्मा गांधी अपने प्रवास के दौरान सूत कातने में इस्तेमाल करते थे। उस जमाने का सूत, और यूएसए की वह ब्लेड भी आज घर में रखी है। रमन के चचेरे भाई प्रफुल्ल बताते है कि यह चरखा और ब्लेड आज भी उनके पास है। महात्मा गांधी ने बैतूल से लौटते समय यह उनके परिवार को भेंट किया था।
बड़ा बगीचा आज भी प्रसिद्ध है
गोठी परिवार के इस मकान के पीछे कई एकड़ क्षेत्र में फैला आमों का बगीचा आज भी प्रसिद्ध है। यहां सैकडों आम के पेड़ हैं। जिसके मिश्री, चौसा, आदि फलों ने राष्ट्रीय फल प्रदर्शनियों में कई इनाम जीते हैं। रमन गोठी बताते है कि यहां 180 किस्म के आम होते थे। आज भी यहां 70 के करीब आम की प्रजातियां मौजूद है। इनमें हापुस आम सबसे खास है। जबकि गुलाब जामुन, कमरख, खिरनी आदि के पेड़ भी थे। वे बताते है कि जब यहां बापू रुके थे। उस दौरान एक बड़ा झूला भी यहां था। उस वक्त बगीचे की सिंचाई चमड़े की मोट से हुआ करती थी। जबकि चीनी मिट्टी की पाइपलाइन बिछी हुई थी।