पं. विजयशंकर मेहता
कहानी – स्वामी समर्थ रामदास जी के बचपन का नाम नारायण था। उनकी माता की बहुत इच्छा थी कि मैं इसका विवाह कर दूं और घर में एक बहू आ जाए। नारायण बचपन से ही साधुओं की तरह रहने लगे थे। उनका अधिकांश समय ध्यान और पूजन में व्यतीत होता था।
संत स्वभाव की वजह से नारायण की माता चिंतित रहती थीं कि ये ज्यादा पूजा-पाठ करने लगा तो विवाह ही नहीं करेगा। नारायण का विवाह 12 साल की उम्र में ही तय कर दिया गया और बारात निकल पड़ी।
विवाह का आयोजन शुरू हुआ। ब्राह्मणों ने मंगलाष्टक पढ़ना शुरू किया। उसमें कुछ शब्द आए शुभ, मंगल, सावधान। जैसे ही नारायण ने सावधान शब्द सुना तो उनके मन में अचानक एक बात आई।
नारायण ने सोचा कि ये सावधान शब्द मेरे लिए कहा जा रहा है। अब संसार की बेड़ियां पैरों में डलने वाली हैं। तुम अब गृहस्थी में उलझोगे और तुम्हारी वृत्ति ऐसी नहीं है। ये सोचते ही वे तुरंत उठे और वहां से चल दिए।
कहा जाता है कि इसके बाद उन्होंने जो भी तप-तपस्या की, उसकी वजह से दुनिया उन्हें स्वामी समर्थ रामदास के नाम से जानती है।
सीख – ये घटना हमें दो संदेश दे रही है। विवाह न किया जाए या विवाह क्यों किया जाए? स्वामी समर्थ रामदास ने अपने आचरण से एक बात बताई है कि अगर हम मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं तो विवाह नहीं करना चाहिए। अगर विवाह कर रहे हैं तो अच्छी तरह सोच-समझकर करना चाहिए। अगर नासमझी में विवाह कर लेंगे तो वैवाहिक जीवन में दुख ही मिलेगा और नासमझी में विवाह करेंगे ही नहीं तो हो सकता है कि हम चरित्र से ही गिर जाएं। इसलिए विवाह सोच-समझकर और मन से प्रसन्न होकर करना चाहिए।