हिंदू पंचांग के अनुसार इस बार आश्विनी कृष्ण पक्ष में तृतीया की वृद्धि होने से 23 और 24 सितंबर को पितृ पक्ष तिथि मानी जाएगी। 21 सितंबर की सुबह 4 बजकर 48 मिनट से 22 सितंबर सुबह 5.07 मिनट तक रहेगी। शास्त्रों में पितर ऋण तीन ऋणों में प्रमुख माना गया है। पितरों को देव की मान्यता है। उन्हें समर्पित आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितृ पक्ष कहा जाता है। यह तिथि 21 सितंबर से शुरू हो रहा है।
सर्वपैत्री अमावस्या में पितृ विसर्जन
पितृ पक्ष की समापन छह अक्टूबर सर्वपैत्री अमावस्या पर पितृ विसर्जन से होगा। इस बार आश्विन कृष्ण पक्ष में तृतीया तारीख की वृद्धि हो रही है जो 23 और 24 सितंबर को भी रहेगी। इससे पितृ पक्ष 16 दिनों का होगा।
श्राद्ध-तर्पण का समय दोपहर
ज्योतिषाचर्य पं. ऋषि द्विवेदी के कहा कि सनातन धर्म में किसी पक्ष का आरंभ उदया तिथि अनुसार माना गया है। वहीं श्राद्ध-तर्पण का समय दोपहर में होता है। शास्त्रों में मनुष्यों के लिए देव, पितृ, ऋषि तीन ऋण बताए गए हैं। माता-पिता ने हमारी आयु-आरोग्यता, सुख-समृद्धि के लिए कई प्रयास किए हैं। उनके कर्ज से मुक्त नहीं होने पर हमारा जन्म ग्रहण करना बेकार होता है।
पितृपक्ष महालया की व्यवस्था की गई
काशी विद्वत परिषद के महामंत्री प्रो. रामनारायण द्विवेदी के कहा कि पितरों के प्रति श्रद्धा अर्पित करने के लिए पितृपक्ष महालया की व्यवस्था की गई है। श्राद्ध के दस प्रकारों में से एक प्रकार को महालया कहा जाता है। हर व्यक्ति को साल भर में पितरों की निधन तिथि पर जल, तिल, जौ, कुश, पुष्प आदि से उनका श्राद्ध करना चाहिए। गो-ग्रास देकर एक, तीन, पांच ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितृगण संतुष्ट होते हैं। इससे परिवार में सुख-समृद्धि, शांति, यश-वैभव, कीर्ति प्राप्त होती है।
पक्षकाल में विशिष्ट योग व ग्रह नक्षत्रों की प्रबल स्थिति
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर सोमवार से महालय श्राद्धपक्ष की शुरुआत होगी। इस बार श्राद्ध पक्ष पूरे सोलह दिन का रहेगा। विशेष यह है कि पक्षकाल में विशिष्ट योग व ग्रह नक्षत्रों की प्रबल स्थिति पितरों के निमित्त किए गए श्राद्ध व दान पुण्य का पूर्ण शुभफल प्रदान करेगी। धर्मशास्त्र के जानकारों के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त तर्पण व पिंडदान तीर्थ पर आकर करना चाहिए। पितृकर्म के लिए श्राद्धकर्ता की मौजूदगी आवश्यक है, तभी इसका पूर्णफल प्राप्त होता है।
ज्योतिषाचार्य पं.अमर डब्बावाला के अनुसार भारतीय सनातन धर्म परंपरा में पौराणिक तथा धर्मशास्त्रीय अभिमत है कि पितरों के निमित्त किए जाने वाले श्राद्ध तीर्थ पर ही संपन्ना् होना चाहिए। क्योंकि तीर्थ पर पंचमहाभूत की प्रबल साक्षी मानी गई है। तीर्थ के देवता की साक्षी ही श्राद्ध कर्म को पूर्णता प्रदान करती है। शास्त्रीय मान्यता में देखें तो पार्वण श्राद्ध, एकोदिष्ट श्राद्ध की जो प्रक्रिया अथवा अष्टका व अन्वष्टका श्राद्ध की जो क्रिया है उसे वैदिक विद्वानों की साक्षी में ही संपन्ना् करना चाहिए। इसलिए श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों में अपने पितरों के निमित्त तीर्थ पर श्राद्ध करना आवश्यक है
गया श्राद्ध व ब्रह्म कपाली में पिंडदान के बाद भी करें श्राद्ध
गरुड़ पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण व यम स्मृति आदि ग्रंथों में श्राद्ध कर्म की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। इसमें अलग-अलग स्थितियों को लेकर श्राद्ध के संबंध में मत स्पष्ट किए गए हैं। जिन लोगों ने गया श्राद्ध कर दिया है, वें भी प्रतिवर्ष तीर्थ पर अपने पितरों के लिए पार्वण व एकोदिष्ट श्राद्ध कर सकते हैं। साथ ही धूप, ध्यान व ब्राह्मण भोजन का अनुक्रम भी करना चाहिए। ब्रह्म कपाली के विषय में भी श्राद्ध के अलग-अलग भेद बताए गए हैं, जिसके माध्यम से पितरों का पूजन करना चाहिए।